जल स्तम्भन का प्रयोग


 स्तम्भन प्रयोग 

श्री शंकर जी बोले - हे रावण ! अब मै आगे स्तम्भन प्रयोग का वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो कि, जिसके साधन से सिद्धि निश्चित रूप से हाथ में आ जाती है |





जल स्तम्भन का प्रयोग 

शंकर जी बोले कि, इस स्तम्भन का प्रयोग में पहले मै जल का स्तम्भ कहता हूँ | केकड़ा का पैर, दांत तथा रक्त एवं कछुआ का कलेजा, सुईस की चर्बी तथा भिलावे का तेल इन सबको एक में मिलकर पकावे | पकने के बाद इसका शरीर पर लेप करने से मनुष्य जल के ऊपर सुखपूर्वक स्थित हो सकता है अर्थात डूब नही सकता | सर्प, नक्र, (नाक) तथा नेवला की चर्बी और डूणडूम का शिर इन सबको एक साथ भिलावे के तेल में पकावे, पकने के बाद एक लोहे के बर्तन में रख लेने उसके बाद कृष्ण पक्ष की अष्टमी आने पर शिव जी की पूजा एवं प्रणाम कर तथा स्तम्भन मंत्र से 1008 एक हजार आठ बार घी की आहुति शंकर जी के नाम से देवे | उसके बाद स्तम्भन मंत्र को पढता हुआ तेल का शरीर के ऊपर लेप कर जल पर सुख पूर्वक बैठ सकते है अथवा चल फिर सकते है | इसी प्रयोग को शंकर जी के प्रसाद से सिद्ध कर प्राचीन महात्माओं ने बढ़ती हुई नदियों को पार कर चमत्कार दिखलाया है |


अग्नि स्तम्भन का प्रयोग 

मेढक की चर्बी तथा कपूर एक साथ मिलकर लेप करने से अग्नि में शरीर नही जलता अर्थात अग्नि स्तम्भन हो जाता है | 

घिकुआर का रस लेपन करने से कोई वस्तु आग में नही जलती, अग्नि का स्तम्भन हो जाता है | हे रावण ! यह मेरा सत्य वचन है |

स्तम्भनमंत्र -: ॐ नमो भगवते जलं स्तम्भय स्तम्भय हुम् फट् स्वाहा |


यह मंत्र एक लक्ष 1 लाख जपने पर सिद्ध होता है | मन्त्र सिद्ध हो जाय तभी क्रिया करनी चाहिए |

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